वैसी ही वो एक शाम आज भी याद है, माँ रो रही थी पापा वर्दी पहने दरवाजे पर खड़े थे।
अरे अभी कुछ ही दिन तो हुए थे उनको आये और वो उनकी बटालियन का खत ओर वो जा रहे थे। कुछ समझ नही रहा था माँ को देख में भी रोने लगा।
हाँ पापा आंखों से दूर जा रहे थे ।
उस दिन से माँ अक्सर मंदिर में मिलती तो कभी रेडियो सुनती, बस अपने सुहाग की रक्षा करती मिलती तो कभी शहीदो पर रोती।
हाँ कारगिल तो दो हो रहे थे एक वो इंसानो का जो लकीरे बना रहा था,
एक माँ और भगवान का जो लकीरो में हो कर भी लकीरे मिटा रहा था।
अब ना कोई खत आया न पत्र बस माँ की उम्मीद में उनकी सुहाग की दुआ में फिर वो शाम आई, पापा खड़े थे दरवाजे पर ओर माँ फिर रो रही थी ।
हाँ लेकिन पापा ना मुस्करा रहे थे ना रो रहे थे बस खामोश हम सबको देख बार बार गले लगा रहे थे।
ना समझ पाए उनकी खामोशी का राज जहाँ पूरा देश, घर खुश था वहाँ पापा खामोश थे।
लेकिन आज लाइब्रेरी में बैठ कुछ पुराने अखबारों को पलटा तो समझ पाये क्यों थे वो इतने खामोश....
"पापा हिंदुस्तान जीत के आ रहे थे...लेकिन वो खुद को खुद से हरा कर रहे थे।
हाँ वो किसी के घर मातम दे कर रहे थे...वो बस अपने घर खुशियां ला रहे थे।।
वो लकीरें खींच के रहे थे...वो लकीरे में बटे रिशतो को बनाने आ रहे थे।
वो हिंदुस्तान जीत हिंदुस्तानी बन के आ रहे थे...वो इंसान को हरा कर इंसानियत छोड़ के रहे थे।
वो इंसानो का कारगिल जीत के रहे थे...हाँ वो आँसुओ का कारगिल हार के रहे थे।।"
...to be continued...
To read 2nd part:-
जंग...(हार या जीत)
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