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आँसुओ का कारगिल
एक सुबह जंग हमारी जीत के साथ खत्म हुई लेकिन जब हम अपने शहीदों के शरीरो को लेने निकले तब एहसास हुए क्या हम ये जंग सच में जीते या वो सच में हारे क्योंकि ये कश्मीर बस नाम से हमारा था।
लेकिन आज लाइब्रेरी में बैठ कुछ पुराने अखबारों को पलटा तो समझ पाये क्यों वो इतने खामोश थे। क्यों वो जंग के चार साल बाद ही वो सेवा छोड़ कर आ गए थे।
वो उनका एक बक्सा जिसमे उनकी वो यादे और जीते मैडल मिलते, जिसे वो बस दिवाली की सफाई पर निकलते और साफ करके वापस रख देते थे। एक रोज जब उनसे पूछा क्यों इनको सबको दिखाने की जगह इस बक्से में कैद करके रखे थे हो?
पापा बोले ये जितना मुझे गर्व देते उतना ही दर्द भी देते है, इसीलिए इनको कैद करके रखता हूँ।
उस रोज पापा ना जाने क्यों मुझको उस जंग की कहानी सुनाने को तैयार थे और में उतना ही सुनने को उत्सुक था। आगे की कहानी पापा की जुबानी
बेटा उस दिन जंग ऐलान हो चूका था। हम उन सालो को उनकी औकात दिखने की तैयारी में लगे थे और साथ में बाते भी कर रहे थे की जीतने के बाद जश्न कैसे मनाएंगे तभी मेरा दोस्त अपने बटुए से अपनी माँ और पत्नी की तस्वीर निकल कर बोल माँ इस बार दिवाली तेरे और तेरी बहु के साथ मनाऊंगा और हँसने लगा।
तनाव और जूनून लकीरों के दोनों तरफ था, अखबारों में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान और बीच में बस कश्मीर था। जंग शुरू हो चुकी थी उस रात से उजाला दिए का नही तोप से निकले गोलों का था और आवाजे हमारे रेडियो की नही बस बंदूको की थी। हर दिन हर पल हमारे साथी शहीद होते लेकिन हमको बस एक ही जूनून था कश्मीर बस हमारा है , हम किसी भी कीमत पर उसे नही देगे।
उसकी घाटी चीख चीख बोल रही थी क्या मिला तुमको इस जंग से में ना तेरा हूँ ना उसका में तो बस अपनी प्रकृति का हूँ, क्यों रंग दिया मुझे इस खुनी लाल रंग से? हम अपने शहीदो के शरीर को उठा कर तिरंगे में समेट रहे थे तभी एक शहीद की मुठ्ठी को खोला तो उसमें उसकी कलाई से टूटी बहन की राखी थी उन चार कादम पर ही मेरे दोस्त का भी शरीर था जिसे जब पलटा तो सीने में पर वो ही बटुआ था माँ और पत्नी की तस्वीर के साथ, कुछ ही दूर पर दुश्मन के सैनिक का म्रत शरीर भी था जिसका मुँह बस थोड़ा ही खुला था शायद एक आखिरी बार अम्मी बोलने की कोशिश की होगी लेकिन वो उसमे भी हार गया।
उस सुबह समझ आया वो अपनी आखिरी दम तक देश के लिए लड़े लेकिन अखिर साँस वो अपनी माँ, पत्नी और अपनों लिए जीना चाहते थे।
उस रोज में और मेरा दोस्त एक आखिरी बार घर साथ जा रहे थे बस फर्क इतना वो तिरंगे में और मे उसके सामने बैठा उसे देख रहा था।
उसके बगल में कुछ और भी शहीद थे मानो लग रहा था वो सब आपस में बात कर रहे हो की यार छूट गयी माँ और पत्नी के साथ पहली दिवाली तो एक ने बोला होगा यार टूट गया मेरे बच्चे का वादा की इस बार उसका अब्बू ईद पर अपने हाथ से बनी सेवई खिलायेगा तभी एक बोला क्या बात करते हो मेरी माँ अभी भी सहरा लिए मेरा इंताजर कर रही होगी।
हार गए थे हम जंग क्योंकि एक अपनी पत्नी को बस एक सफेद रंग में छोड़ खुद तीन रंग में जा रहा था तो एक ने अपने बेटे की सेवई की कटोरी को खाली छोड़ दिया था और किसी माँ के हाथ में सहरा सुना रह गया। बस जो बाकी था वो बस कश्मीर पर लहराता हुआ हमारा तिरंगा
जय हिंद।
पापा पहली बार रो रहे थे और मेरी आँखें नम थी ।
पापा हिंदुस्तान जीत के आ रहे थे...
लेकिन वो खुद को खुद से हरा कर रहे थे।
हाँ वो किसी के घर मातम दे कर रहे थे...
वो बस अपने घर खुशियाँ ला रहे थे।।
वो लकीरें खींच के आ रहे थे...
वो लकीरे में बटे रिशतो को बनाने आ रहे थे।।
वो हिंदुस्तान जीत हिंदुस्तानी बन के आ रहे थे...
वो इंसान को हरा इंसानियत छोड़ के रहे थे।।
वो इंसानो का कारगिल जीत के रहे थे...
हाँ वो आँसुओ का कारगिल हार के रहे थे।।।
....the end.....
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